Monday 9 August 2021

عزاداری اور شہادت امام حسین علیہ السلام

 

مولانا رضی زیدی پھندیڑوی دہلی

حوزہ/ شہیدوں کا غم اور خاص طور پر سید الشہدا حضرت امام حسینؑ کا غم، کربلا کے عظیم واقعہ کو زندہ وجاوید بنانے کا ذریعہ ہے اس غم سے عزاداروں اور حق کے پیشواؤں کے درمیان باطنی بندھن قائم ہوتاہے اور ساتھ ہی لوگوں میں ظلم و ستم سے مقابلے کی روح زندہ ہوتی ہے۔

تحریر: مولانا رضی زیدی پھندیڑوی دہلی

   عراق کے کربلا،نینوا نامی صحرا میں حبیب خدا،  رحمۃ العالمین  حضرت محمد مصطفٰیؐ کے نواسے حضرت امام حسین علیہ السلام اور  ان کے باوفا ( 72) ساتھیوں کی عظیم شہادت اسلام کی تاریخ کا بے مثال معرکہ ہے۔جس میں انہوں نے  راہِ خدا و اسلام، راہِ حق و عدالت اور جہالت و گمراہی کی زنجیروں میں جکڑی ہوئی انسانیت کو آزاد کرنے کے لئے سنہ ٦١ہجری میں جامِ شہادت نوش فرمایا۔اسی لیے حضرت امام حسینؑ نہ صرف مسلمانوں کے دلوں میں مقام و منزلت رکھتے ہیں بلکہ تما م مذاہب اسلامی اور غیر اسلامی آپ کو ایک مرد آزاد کے عنوان سے پہچانتے ہیں۔ آپ کی یاد میں محرم کاچاند نمودار ہوتے ہی عزاداروں کی بستیوں میں غم کا ماحول چھاجاتاہے، عورتیں اپنا  زیور اتار کر غم کا حلیہ اختیار کرلیتی ہیں اورجگہ جگہ عزاداری کا سلسلہ شروع ہوجاتا ہے۔ ہر طرف سے نوحہ ،مرثیہ اورمجلس کی صدا ئیں آنے لگتی ہیں۔
برصغیر میں شہدائے کربلا کی عزاداری بہت قدیمی ہے۔ عزاداری حضرت امام حسین ؑ منانے کا سلسلہ ملتان میں شروع ہوا جب وہاں تیسری صدی ہجری کے اوائل میں قرامطہ اسماعیلیوں کی حکومت قائم ہوئی اور یہاں مصر کے فاطمی خلفاء کا خطبہ پڑھا جانے لگا۔ ابن تعزی کے مطابق مصر اور شام میں فاطمیوں کی حکومت کے قیام کے بعد 366ھ/978ء میں عزاداری سید الشہداء برپا ہونا شروع ہوئی ۔ محمود غزنوی کے حملے کے نتیجے میں ملتان میں اسماعیلی حکومت کے خاتمے اور اسماعیلی پیشواؤں کے صوفیا کی شکل اختیار کر لینے کے بعد صوفیوں کی درگاہوں اور سنی بادشاہوں کے قلعوں پر عشرہ محرم کے دوران عزاداری تذکرہ کے نام سے برپا کی جاتی رہی ہے۔ جنوبی ہندوستان میں یہ روایت دکن کی شیعہ ریاستوں میں زیادہ منظم رہی اور برصغیر کا پہلا امام بارگاہ (عاشور خانہ) بھی وہیں قائم ہوا۔
امام حسین علیہ السلام کے قیام کا مقصد، اسلامی معاشرے کے درپیش خطروں کو دور کرنا تھا ۔ روح کی بالیدگی اور معنویت کی طرف رجحان کربلا کا وہ عظیم سرمایہ ہے جو کسی اور کے پاس نہیں اسی لئے ہماری تہذیب میں اس غم کی بہت قیمت ہے اور ہماری ثقافت ميں امام حسین علیہ السلام اور ان کے اصحاب و انصار کی مجالس اور عزاداری کا انعقاد، عبادت ہے ۔ کیونکہ عزاداری، معنویت میں فروغ کاباعث ہوتی ہے اور انسان کو انسانیت کے اعلیٰ ترین مدارج تک پہنچانے میں مدد کرتی ہے۔ امام حسین علیہ السلام پر گریہ و زاری اور حزن واندوہ، باطنی تغیر وجود ميں آنے اور اس کے ساتھ ہی انسان کے روحانی کمال کا باعث ہوتی ہے ۔ اس سے انسان میں تقویٰ اور خدا سے نزدیک کرنے کے مقدمات فراہم ہوتے ہيں۔ اسی طرح عزاداربھی اس مظلوم کے ساتھ ہیں جو عقیدے کی راہ میں موت کو سعادت اور ستمگر کے سامنے تسلیم ہو جانے کو باعث ننگ و عار قرار دیتے ہیں۔
امام حسین علیہ السلام کی شہادت کا غم ،وہ غم ہے جو ظاہر و باطن میں انسان کے وجود میں ایک ایسا انقلاب پربا کر دیتا ہے کہ انسان بغیر قدروں کے جینے کو موت سے تعبیر کرتا ہے اور شاید یہی وجہ ہے کہ آج ہر مکتب خیال کے لوگ اس کے ساتھ جڑے ہوئےنظر آتے ہیں ۔
اس غم کی عمارت ان انسانی بنیادوں پر قائم ہے کہ جہاں مذہبی، نسلی اور لسانی تنگ نظری کا کوئی تصور نہیں پایا جاتا بلکہ ہرفرد کے دل کی آوا ز ہے اسی لئے دنیا کی اہم انقلابی تحریکوں میں اس کی صدائے بازگشت سنائی دیتی ہے ۔جس وقت ہندوستان غلامی کی زنجیروں میں جکڑا ہوا تھا تومہاتما گاندھی نے کہا تھا : ” حسینی اصول پر عمل کرکے انسان نجات حاصل کرسکتا ہے"۔ پنڈت نہرو کہتے ہیں” امام حسین (ع) کی شہادت میں ایک عالمگیر پیغام ہے" ۔ ” ہیروز ورشپ ” کے مصنف کارلائل نے کہاتھا کہ ” شہادت حسینؑ کے واقعہ پر جس قدر غور و فکر کی جائے گی اسی قدر اس کے اعلیٰ مطالب روشنی میں آتے جائیں گے"۔بھارت کے سب سے پہلےصدر ڈاکٹر راجندر پرساد بیدی(۱۸۸۴-۱۹۶۳ء) نے کہا کہ امام حسینؑ کی قربانی کسی ایک ریاست یا قوم تک محدود نہیں بلکہ یہ بنی نوع انسان کی عظیم میراث ہے"۔ بنگال کے معروف ادیب رابندر ناتھ ٹیگور(۱۸۶۱ءتا۱۹۴۱ء)نے کہا: "سچ اور انصاف کو زندہ رکھنے کے لئے فوجوں اور ہتھیاروں کی ضرورت نہیں، قربانیاں دے کر بھی فتح حاصل کی جا سکتی ہے، جیسے امام حسین ؑنے کربلا میں قربانی دی؛ بلاشبہ امام حسین انسانیت کے لیڈر ہیں"۔
عزاداری کامطلب،ایک عظیم انقلاب برپا کرنے والے مظلوم کے ساتھ جذبات کے بندھن کو مضبوط کرنا اور ستمگرو ظالم کےخلاف احتجاج کرناہے ۔ شہدا پر گریہ و عزاداری ان کے ساتھ کربلا کےمیدان ميں شرکت کے مترادف ہے اس بناء پر مجالس اور جلوسوں ميں شرکت کرنے والوں میں جو معنوی تبدیلی رونما ہوتی ہے اس سے سماجی تبدیلیوں کے لئے حالات سازگار ہوتے ہیں اور در حقیقت امام حسین علیہ السلام کے اہداف و مقاصد کے تحفظ کے لئے حالات فراہم ہوتے ہیں ۔ شہیدوں کا غم اور خاص طور پر سید الشہدا حضرت امام حسینؑ  کا غم ، کربلا کے عظیم واقعہ کو زندہ وجاوید بنانے کا ذریعہ ہے اس غم سے عزاداروں اور حق کے پیشواؤں کے درمیان باطنی بندھن قائم ہوتاہے اور ساتھ ہی لوگوں میں ظلم و ستم سے مقابلے کی روح زندہ ہوتی ہے۔پروردگار سے دعا ہے: پالنے والے بنی آدم  کی ہدایت اور ہمیشہ حق کا ساتھ دینے کی توفیق عطا فرما آمین والحمدللہ رب العالمین۔ 

अज़ादारी और शहादते इमामे हुसैन (अ.स.)

 

मौलाना रज़ी ज़ैदी

हौज़ा / शहीदों का ग़म और विशेष रूप से सैयदुश्शोहदा इमाम हुसैन (अ.स.) का ग़म कर्बाल के वाक़ेए को जिंदा ओ जावेद बनाने का ज़रिया है। इस ग़म से अज़ादारो और हक़ के पेशवाओ के दरमियान बातीनी बंधन क़ायम होता है और साथ ही लोगो मे ज़ुल्म ओ सितम से मुक़ाबले की रूह ज़िंदा होती है।

मौलाना रज़ी जै़दी फंदेडवी दिल्ली द्वारा लिखित

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी। 61 हिजरी मे इराक के कर्बला, नैनवा नामी सहरा मे हबीबे ख़ुदा, रहमतुल लिल्आलामीन हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (स.अ.व.व.) के नवासे इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके वफादार (72) साथियों की अज़ीम शहादत इस्लाम के इतिहास में एक अभूतपूर्व मारका है। जिसमे उन्होने राहे खुदा, इस्लाम, राहे हक़ ओ अदालत और जहालत, गुराही की ज़ंजीरो मे जकड़ी हुई इंसानियत को आज़ाद करने के लिए जामे शहादत नोश फ़रमाया। इसीलिए इमाम हुसैन (अ.स.) न केवल मुस्लमानो के दिलो मे मक़ाम ओ मंज़िलत रखते है बल्कि सभी मुस्लिम और गैर स्लिम आपको एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में पहचानते हैं। आपकी याद में मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही अज़ादारी मनाने वाली बस्तियों में मातम का माहौल हो जाता है। हर तरफ से मातम, मातम और मजलिसो की आवाजें आने लगती हैं।

उपमहाद्वीप में कर्बला के शहीदों की अज़ादारी बहुत पुरानी है। इमाम हुसैन (अ.स.) की अज़ादारी मनाने का सिलसिला मुल्तान में शुरू हुआ जब वहा तीसरी सदी हिजरी के शुरूआत मे क़रामता इस्माईलीयो की सरकार बनी और यहां मिस्र  के फातेमी खलीफाओं का खुत्बा पढ़ा जाने लगा। इब्न ताज़ी के अनुसार, मिस्र और सीरिया में फातेमी शासन की स्थापना के बाद 366हिजरी / 978 ई. में , शहीदों की अज़ादारी शुरू हुई। महमूद गजनवी के आक्रमण और इस्माइली नेताओं के सूफियों में रूपांतरण के परिणामस्वरूप मुल्तान में इस्माईली सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद, मुहर्रम की १० वीं के दौरान सूफी दरगाहो और सुन्नी राजाओं के किलों मे अज़ादारी मनाई जाने लगी। दक्षिण भारत में यह परंपरा दक्कन के शिया राज्यों में अधिक संगठित थी और उपमहाद्वीप का पहला इमामबाड़ा (अशूरा खाना) भी वहीं स्थापित किया गया था।

इमाम हुसैन (अ.स.) के क़याम का उद्देश्य इस्लामी समाज के सामने आने वाले खतरों को दूर करना था। आत्मा की परिपक्वता और आध्यात्मिकता की ओर झुकाव कर्बला की महान संपत्ति है जो किसी और के पास नहीं है, इसलिए यह दुःख हमारी संस्कृति में इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके साथियों और अंसार की मजलिस और अज़ादारी में बहुत मूल्यवान है। आचरण ही इबादत है। क्योंकि अज़ादारी आध्यात्मिकता को बढ़ावा देती है और मनुष्य को मानवता के उच्चतम स्तर तक पहुंचने में मदद करती है। इमाम हुसैन (अ.स.) के लिए रोना और विलाप करना आंतरिक परिवर्तन का कारण है और इसके साथ ही मनुष्य की आध्यात्मिक पूर्णता भी है। यह मनुष्य में ईश्वर के प्रति पवित्रता और निकटता के लिए एक उदाहरण प्रदान करती है। उसी तरह मातम मनाने वाले भी दीन के साथ होते हैं जो आस्था की राह में मौत को खुशी और जुल्म करने वाले को लज्जा का कारण मानते हैं। इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत का ग़म वो ग़म है जिसने इंसान के वजूद को अंदर और बाहर से क्रान्तिकारी बना दिया है। लोग इससे जुड़े हुए नज़र आते हैं।

इस दु:ख का निर्माण मानवीय आधार पर किया गया है कि जहां धार्मिक, जातिगत और भाषाई संकीर्णता की अवधारणा नहीं बल्कि हर व्यक्ति के दिल की आवाज है, इसलिए दुनिया के महत्वपूर्ण क्रांतिकारी आंदोलनों में इसकी गूंज सुनाई देती है। ऐसे समय में जब भारत गुलामी की जंजीरों में था, महात्मा गांधी ने कहा था: "हुसैनी सिद्धांत का पालन करके मनुष्य को बचाया जा सकता है।" पंडित नेहरू कहते हैं, "इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत का एक सार्वभौमिक संदेश है।" "हीरोज उपासना" के लेखक कार्लाइल ने कहा कि "हुसैन की शहादत के मुद्दे पर जितना अधिक विचार किया जाएगा, उसकी उच्च मांगें उतनी ही अधिक सामने आएंगी।" डॉ राजेंद्र प्रसाद बेदी ने कहा कि इमाम हुसैन का बलिदान किसी एक राज्य या राष्ट्र के लिए सीमित नहीं है बल्कि यह मानव जाति की महान विरासत है। प्रसिद्ध बंगाली लेखक रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा: "सच्चाई और न्याय को जीवित रखने के लिए सैनिकों और हथियारों की आवश्यकता नहीं है। बलिदान करके विजय प्राप्त की जा सकती है, जैसे इमाम हुसैन ने कर्बला में बलिदान दिया।" इमाम हुसैन मानवता के नेता हैं । "

अज़ादारी का अर्थ है उत्पीड़ितों के साथ भावनाओं के बंधन को मजबूत करना जो एक महान क्रांति कर रहे हैं और उत्पीड़क के खिलाफ विरोध कर रहे हैं। शहीदों के लिए रोना और अज़ादारी करना उनके साथ कर्बला के युद्ध के मैदान में भाग लेने के समान है। लक्ष्यों और उद्देश्यों की सुरक्षा के लिए शर्तें प्रदान की जाती हैं। शहीदों का दुःख और विशेष रूप से इमाम हुसैन (अ) का दुःख कर्बला की महान घटना को कायम रखने का एक साधन है।

Friday 6 August 2021

शादी ब्याह और हमारा समाज

 


मौलाना सैयद रज़ी जैदी फ़ांदेड़वी दिल्ली द्वारा लिखित


 विवाह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो हर धर्म, राष्ट्र और मानव जाति में पाई जाती है। इस्लामी दृष्टिकोण से, शादी बुराई को मना करती है और पवित्र पैगंबर की सुन्नत है। इस प्रक्रिया का महत्व, जिसका उल्लेख कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने किया है, शरीयत द्वारा समाज के लिए बहुत आसान बना दिया गया है, लेकिन समाज ने इसे इतना सख्त बना दिया है कि गरीब लड़कियों और लड़कों की शादी न केवल मुश्किल हो गई है बल्कि बहुत कठिन हो गई है। जिससे दुनिया में सामाजिक अशांति और मानसिक बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। इसकी जिम्मेदारी समाज के हर उस सदस्य की है जो अपने विवाह में रस्मों और कर्तव्यों की आड़ में पैसा बर्बाद कर रहा है। यह प्रक्रिया पूरे जोश के साथ चल रही है। शादी मे फिजूलखर्ची से अपने धन की फिजूलखर्ची से हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। हमेशा की तरह दुनिया में फिर से महंगाई की गूँज सुनाई दे रही है। शादी की रस्मों के नाम पर लोग समाज में कई तरह की परेशानियां पैदा कर रहे हैं। इस्लाम ऐसे मौकों पर खुशियों की मनाही नहीं करता है, लेकिन शादी के बाद लड़के द्वारा वलीमे की व्यवस्था शरिया-अनुपालन में खुशी की अभिव्यक्ति है। समाज मे लोग अन्य रस्मो की तरह शादी ब्याह मे भी सीमा का लांघ जाते है और उन्हे एहसास तक नही होता कि उन्होंने समाज में किस बीमारी की नींव रखी है।


हमारे देश में यह सिलसिला रिश्ते की शुरुआत से शुरू होकर शादी तक चलता है जिसमें लाखों गहने और महंगे कपड़े उपहार के रूप में दिए जाते हैं। इसे एक समारोह भी कहा जा सकता है। क्योंकि इस तरह के समारोह में बड़ी मात्रा में पैसा खर्च किया जाता है। मध्यम वर्ग की लड़की या लड़के से शादी करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। लोगों ने सगाई से लेकर शादी तक के अंतराल को सिरदर्द बना दिया है। इस बीच के समय में, पार्टियां एक-दूसरे को विभिन्न त्योहारों पर मूल्यवान उपहारों से पुरस्कृत करती हैं। जिसके पास यह नहीं है वह अपने बच्चों की शादी करने की भी हिम्मत नहीं करता है। अब तक, वह कभी नहीं सोचता शादी में व्यर्थ पैसा खर्च करने वाले सोचते हैं कि एक गरीब व्यक्ति जो अपने बच्चे की शादी के बारे में सोचने में असमर्थ है। यह बीमारी कहां से आई? यह वह बीमारी है जिसके बीज एक अमीर आदमी ने शादी में बोया था, जिसका खामियाजा समाज में रहने वाले लोगों को भुगतना पड़ रहा है।शादी से कुछ दिन पहले ही बड़ी संख्या में मेहमानों का आना शुरू हो जाता है। मेहमानों को तरह-तरह के महंगे व्यंजन परोसे जाते हैं, आतिशबाजी की भी व्यवस्था की जाती है।


बरात में देश भर से हजारों मेहमान शामिल होते हैं और लड़कियों द्वारा हजारों मेहमानों को आमंत्रित किया जाता है और उनके लिए बकरा, मछली और अन्य महंगे व्यंजन तैयार किए जाते हैं। बस इस डर से कि लड़की के ससुराल वाले उसका उपहास न करें, लड़के को एक महंगी मोटरसाइकिल या कार और आभूषण और अन्य उपहारों से पुरस्कृत किया जाता है। लगभग 25 से 30 प्रतिशत भोजन फालतू है। कई दिनों तक इसका विज्ञापन किया जाता है, और फिर शादी में शामिल होने वाले मेहमानों और क्षेत्र के लोगों को इसे अलविदा कहने की उम्मीद है। उन्होंने अच्छी शादी की, उनका दिल खुश था, लेकिन समाज के पिता से पता करें कि कर्ज के रूप में इस बीमारी से पीड़ित शादी के बाद कई सालों तक उसका दर्द सहन किया। कई मध्यम वर्ग के लोग समाज की इस झूठी परंपरा के शिकार हो रहे हैं। उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है। लोगों के जीवन को इस झूठी महिमा के लिए बलिदान किया जा रहा है। बच्चों की शादी के लिए जीवन भर की बचत नाकाफी साबित हो रही है। ब्याज वाले कर्ज लेकर शादियां हो रही हैं। समाज में यह दिखावटी माहौल कई मजबूर माता-पिता को आग लगा रहा है। समाज में बुराई पैदा कर रहा है। कई शादियां इनके कारण रुकी हुई हैं फिजूल खर्च, झूठा अहंकार और संस्कार उन्हें खिलाओ। कुरान कहता है: जब उन्हें पवित्रता अपनाने के लिए कहा जाता है, तो झूठा सम्मान उन्हें ऐसा करने से रोकता है (सूरत अल-बकराह: 206)। वे जो कहते हैं उससे दुखी न हों। निश्चित रूप से, सभी सम्मान अल्लाह के हैं वह सब सुनने वाला, जानने वाला है (सूरह यूनुस, पद 65) हमें जश्न मनाना चाहिए, लेकिन हमें सावधान रहना चाहिए कि हम सीमा को पार न करें। संयम का मार्ग अपनाया जाना चाहिए। इस्लाम भी संयम सिखाता है। 


खाओ, पियो, और फालतू खर्त न करो निसंदेह वह फ़ालतु खर्च करने वालो को पसंद नहीं करता। (सूरत अल-अराफः 31) विवाह में फिजूलखर्ची के स्थान पर बच्चों को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। बाहरी आभूषणों के बजाय उन्हें शिक्षा और प्रशिक्षण के आभूषणों से अलंकृत किया जाना चाहिए। दहेज के बजाय, संपत्ति के वितरण में न्याय और निष्पक्षता का प्रयोग किया जाना चाहिए (विरासत)। उच्च कीमतों के इस समय में यह प्रक्रिया समाज के लिए एक बड़ी राहत हो सकती है। जिससे समाज मे तवाज़न बरक़रार हो जाएगा और लोगो की परेशानीया कम हो जाएगी और फरि समाज में अविवाहित लोगों को  शादी करने का अवसर दिया जाएगा।। हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि वे उन सभी लोगों की मदद करें जो संयम का अभ्यास करते हैं ताकि समाज की बुराइयों को दूर किया जा सके। आमीन

Syed Razi Haider Zaidi

Syed Razi Haider Zaidi   ( Urdu   سید رضی حیدر زیدی) also known as   Maulana Razi Haider   (born 14 October 1980) is a leading Indian Twelve...